Thursday 24 December 2015

वो मानव जाति की तबाही का इंतजार कर रहा है

वो मानव जाति की तबाही का इंतजार कर रहा है

हम मानव भले ही खुद पर कितना इतराएं, अपनी उपलब्धियों पर कितना ही गर्व कर लें. लेकिन कोई ऐसा है जो जानता है कि ये उपलब्धियां हमारी अपनी नहीं हैं. हम अपनी जिस बनावट पर गर्व करते हैं वो हमारी नहीं है. आपको भले ही यह जानकर हैरानी हो लेकिन बहुत से लोग ऐसा मानते हैं कि हम इंसान इस धरती की प्राकृतिक प्रजाति नहीं हैं. हमें एलियन के डीनए से विकसित किया गया है. यह सब जानने के बाद आप जरूर यह भी सोच रहे होंगे कि अगर मनुष्य, जो धरती को अपना मानता है वही इस धरती का अपना नहीं है तो फिर कौन है जो इस धरती का प्राकृतिक जीव है, जिसका उद्भव इसी धरती पर हुआ है?


यती, येती या योवी, चाहे आप इसे जिस भी नाम से पुकार लें लेकिन विशेषज्ञों का एक समूह यह दावा करता है कि यही इस धरती का प्राकृतिक जीव है, सिर्फ इसी ने ही धरती पर जन्म प्राकृतिक अवस्था में जन्म लिया था और इंसानों की वजह से वह खुद ऐसी जगहों पर रहने के लिए विवश है जहां उसे कोई देख नहीं सकता. यति का शारीरिक ढांचा आम मनुष्य जैसा ही है लेकिन उनका कद और आकार काफी विशाल होता है, इतना ही नहीं उनके शरीर पर लंबे-घने बाल भी होते हैं और कुछ तो यह भी मानते हैं कि इनके पास जादुई ताकतें भी होती हैं.


इंसानों की वजह से आज वह ऐसे जंगलों और कंदराओं में रहने के लिए विवश है जहां कोई आता-जाता नहीं है. वर्तमान समय में इन्हें बिगफुट के नाम से भी जाना जाता है क्योंकि शरीर का आकार बड़ा होने के कारण इनके पैर के पंजे भी बहुत बड़े होते हैं. किसी ने भी यति को देखा नहीं है लेकिन उसके पैर के निशान कई बार पाए गए हैं, लेकिन फिर भी कोई भी वैज्ञानिक या शोधकर्ता बिगफुट के इस रहस्य को नहीं सुलझा पाए हैं.


भारत में येति को हिममानव भी कहा जाता है क्योंकि इसके बड़े-बड़े पैरों के निशानों को हिमालय की बर्फ से लदी चोटियों पर देखा गया है. वह उसके रहने के लिए सबसे उपयुक्त स्थान माना जाता है. येति का उल्लेख पौराणिक ग्रंथों में भी देखने को मिला है. दो प्रमुख वेदों ऋगवेद और सामवेद में येति का वर्णन किया गया है.


आधुनिक वैज्ञानिक भले ही इसे सही करार ना दें लेकिन प्राचीन समय में एलियन पर रिसर्च करने वाले शोधकर्ताओं का मानना था कि धरती पर आकर एलियन ने ऐसी मानव जाति बनाई जो देखने में सुंदर थी और साथ ही उनके शरीर पर ज्यादा बाल भी नहीं थे. इतना ही नहीं यति के व्यवहार में जानवरों की जो हरकतें हुआ करती थीं उन्हें भी एलियन्स ने मानव जाति से निकाल दिया.


विभिन्न वैज्ञानिक शोधों से यह पता चला है कि येति ही धरती के असल जीव हैं जबकि इंसानों की पैदाइश एलियन ने की है. हालांकि कुछ यह भी मानते हैं कि यह भी हो सकता है कि शायद एलियंस जब धरती पर आए थे तो उन्होंने इंसानों और चिंपाजियों के जीन को मिलाकर एक नई प्रजाति विकसित की जिसे आज येति, यति या बिगफुट के तौर पर जाना जाता है.


वहीं कुछ लोग येति को ही एलियन का आविष्कार मानते हैं जिसे चिंपांजी और इंसानों के मिश्रित डीएनए से विकसित किया गया है और जिसे देखने और हाल जानने के लिए ही एलियन समय-समय पर धरती पर आते हैं.

अब सच क्या है यह तो अभी भी शोध का विषय है लेकिन यह बात तो सच है कि धरती पर हिममानव का वास है और वह अपने शत्रु इंसानों, जिन्होंने उसे ही गुप्त वास में रहने के लिए मजबूर किया, के विनाश का इंतजार कर रहा है.

क्या शरीर की तलाश में वो साया भटक रहा है


क्या शरीर की तलाश में वो साया भटक रहा है

हम एक ऐसी दुनिया में रहते हैं जहां हर मोड़ पर इंसानों के भीतर डर और सिहरन पैदा करने के लिए आत्माएं और अन्य शैतानी ताकतें अपना रौब दिखाती रहती हैं. अब आप भले ही इस तथ्य पर यकीन ना करें लेकिन आपकी हर हरकत, हर कदम पर बुरी व अच्छी आत्माओं की नजर रहती है. यह आत्माएं आपको एक पल के लिए भी तन्हा नहीं छोड़तीं, हां कई बार भीड़भाड़ से बचते हुए वह आपको अकेलेपन में ही अपने होने का एहसास करवाती हैं. ऐसी ही एक घटना से हम आज आपको रुबरू करवाने जा रहे हैं जो कोई कहानी नहीं बल्कि एक आम इंसान के साथ घटित एक खौफनाक घटना है.

बाद आज से कुछ 5-10 साल पुरानी है. अशोक नाम का एक व्यक्ति जिसका गांव पूर्वी उत्तर-प्रदेश के एक कस्बाई इलाके में था. वैसे तो वो दिल्ली में नौकरी करता था लेकिन घर आए हुए काफी समय बीत चुका था इसीलिए छुट्टी लेकर वह घर आया हुआ था. यह इलाका बेहद सुनसान और घनी झाड़ियों के बीच बसा हुआ था और इन घनी झाड़ियों की बीच शाम के समय अकसर सन्नाटा ही पसरा रहता था.


अशोक को बचपन से ही छत पर सोने की आदत थी और बड़े होने के बाद जब भी वह गांव जाता तो अपने घर की खुली छत पर ही सोता था. लेकिन एक रात छत पर सोना ही उसके लिए महंगा साबित हुआ क्योंकि यह वो रात थी जब उसका सामना एक ऐसे साये से हुआ जो नुकसान पहुंचाने के उद्देश्य से उसके पास तो आया लेकिन अशोक की सूझबूझ की वजह से वह उसका बाल भी बांका नहीं कर सका.


रात का करीब एक बजा था कि अचानक किसी आवाज ने अशोक की नींद खोल दी. वह अपनी चारपाई से उठ कर छत की रेलिंग के पास जाकर आसपास देखने लगा. उसे अपने घर से थोड़ी ही दूर पर किसी साये को इधर-उधर घूमते हुए देखा, छोटा सा कस्बाई इलाका था उसे लगा शायद कोई अपने घर से बाहर आया होगा. वह वापिस जाकर चारपाई पर लेट गया. उसे फिर कुछ आवाज सुनाई दी लेकिन इस बार आवाज थोड़ी ज्यादा पास से आ रही थी.


वह फिर उठा और छत से नीचे देखने लगा. उसे अपने घर के पास ही एक साया दिखाई दिया लेकिन खौफनाक बात यह थी कि वह सिर्फ साया था उसका शरीर नहीं था. इतने में उसे सीढ़ियों पर किसी के बहुत ही तेजी के साथ चढ़ने की आवाज सुनाई दी. 1 मिनट से भी कम समय में वह साया उसकी नजरों के सामने खड़ा था. उसकी शक्ल, हाथ-पैर कुछ भी नहीं था, अगर कुछ था तो वह सिर्फ एक सफेद साया जो धीरे-धीरे अशोक की तरफ बढ़ता जा रहा था.


कहते हैं बुराई को काटने के लिए अच्छाई का ही सहारा लिया जाता है इसीलिए उस साये से खुद को बचाने के लिए उस समय अशोक ने कवच कीलक अर्गला मंत्र का जाप करना शुरू कर दिया. वह लगातार 5 मिनट तक यह जाप करता रहा और वह साया उनके पास आता रहा. अचानक ही वह साया अंतरध्यान हो गया. वह हवा था और एक दम से हवा में बहकर गायब हो गया. वह कहां गया, कहां से आया था कुछ पता नहीं चला लेकिन कुछ समय जब तक वह साया अशोक के सामने रहा उन चंद लम्हों ने अशोक के हाथ-पांव फुला दिए थे.

Tuesday 22 December 2015

चंगी अस्‍पताल, जहां आज भी जिंदा है रूहें

जहां आज भी जिंदा है रूहें

दुनिया में रूहों, आत्‍मओं के बारें में बहुत सी भ्रांतिया विकसित है, कई लोगों ने इनका आभास किया है तो कई लोग इन्‍हे देखने का भी दावा करते हैं। इन रूहों का अस्‍तीत्‍व में कीतनी सच्‍चाई होती हैं इसके बारें में लोग अलग-अलग राय देतें है। लेकिन क्‍या हो तब जब आप किसी ऐसी जगह पर जाएं जिसके बारें में आपने बहुत कुछ सुन रखा हो और उस जगह पर आपकी किसी ऐसी ही अदृश्‍य शक्ति से हो जाये। 

रूहो,आत्‍माओं या फिर किसी भी अदृश्‍स शक्ति, जैसा कि आपकों पूर्व के लेखों में बताया गया है कि इनका शारिरीक रूप से कोई अस्‍तीत्‍व नहीं होता हैं। लेकिन ये बेमिशाल शक्ति की मालिक होती है। जरा सोचिए जब कोई बगैर शरीर के इतना शक्तिशाली हो कि वो आपकों अपने होने का आभास करा देंता हो वो वास्‍तव में कितना भयानक होगा। 

रूहों के बारें में लोगों के दिमाग में कुछ सवाल हमेशा कौंधतें है कि वो हमेशा एकांत में ही क्‍यों रहती हैं? या फिर वो सामने क्‍यूं नहीं ? वगैरा वगैरा। हम आपकों बतां दें कि उन्‍हे हमारे सामने आने में कोई समस्‍या नहीं होती है। दोष हमारे आंखों में होता है वो दुनिया के हर कोनें में हर समय मौजूद रहती हैं। बस हम उन्‍हें देख नहीं पातें। उनकी उपस्थिती का अंदाजा आप इसी से लगा सकतें है कि वो शायद इस समय यह लेख पढ़तें समय भी आपकें आस पास मौजूद हो सकती हैं। ए‍क बात इनके बारें में कहीं जाती है कि जब इनके बारें में सोचा जाता है, या फिर इन्‍हे याद किया जाता है तो ये और शक्तिशाली हो जाती है और आपके सामने आ सकती हैं। 

एक सवाल और जो कि अमुमन लोगों के दिमाग में आता है कि इन आत्‍माओं का जन्‍म कहां से होता हैं। तो मै आपको बता दू कि रूहों का जन्‍म जीवों की मौत के बाद होता हैं। रूहें या आत्‍माएं केवल इंसानों की ही नहीं होती हैं ये जानवरों की भी होती हैं। जहां तक रहा सवाल इनके आकार या फिर संरचना का तो वो सदैव विचित्र ही होता है जैसा कि हम इंसान पहले कभी नहीं देखें होतें हैं। आज हम आपकों अपने इस सीरीज के इस लेख में सिंगापूर के एक ऐसे अस्‍पताल के बारें में बताऐंगे जो कि जापानी सैनिकों के इलाज के लिए बनाया गया लेकिन वो उनकी कब्रगाह बन गया। आइऐं चलतें है मौत की उस भयानक सफर पर जहां हम आपकों बताऐंगे पुराने चंगी अस्‍पताल के बारें में। 

चंगी अस्‍पताल का इतिहास 
चंगी अस्‍पताल का निर्माण सन 1930 में कराया गया था। यह अस्‍पताल नार्थवन रोड के किनारे चंगी गांव के पास बनाया गया था इसीलिए इसका नाम चंगी अस्‍पताल पड़ गया। उस समय इस यह एक मिलीट्री अस्‍पताल हुआ करता था। द्वितीय विश्‍व युद्व के दौरान सिगापुर के चंगी गांव के आस-पास जापानियों का कब्‍जा हो गया था। उस समय हजारों की संख्‍या में जापानी सैनिक इस अस्‍पताल में लायें गये थे। 

इस अस्‍पताल में उन सैनिकों का इलाज किया जाता था। इलाज के दौरान इस अस्‍पताल में सैनिकों को उपचार देने के लिए पर्याप्‍त साधन मौजूद नहीं थी। इसके अलांवा रोजाना सैकड़ों की संख्‍या में घायल जवानों के आनें का सिलसिला जारी था। उस समय इस अस्‍पताल में नर्स, चिकित्‍सक और कुछ सुरक्षाकर्मी भी थे। सैनिक इतने ज्‍यादा घायल होतें थें कि उनको बचाना कठिन होता था और देखते देखते हजारों की संख्‍या में जवानों की मौत होनें लगी। 

अस्‍पताल में हो रही इन मौतों के कारण अस्‍पताल में एक भयानक बिमारी ने जन्‍म ले लिया और यह बिमारी अस्‍पताल के स्‍टाफ में भी फैल गयी। इस अस्‍पताल में काम करने वालें दो नर्सो की भी बिमारी के चलते मौत हो गयी। इसके अलांवा एक चिकित्‍सक की भी मौत हो गयी। यह अस्‍पताल एक बहुत ही विशाल भवन था, इसमें कई ब्‍लाक थे। साथ ही इसमें बहुत ढेर सारे वार्ड भी थे। 

अस्‍पताल में रूहों का बसेरा
लगातार हो र‍ही मौतों के कारण यह अस्‍पताल उस समय एक मनहूस जगह बन चुकी थी। उस समय जो जवान घायल अवस्‍था में लायें गये थे उसमें से बहुत कम ही जिंदा वापस जा सके थे। ज्‍यादातार जवानों की वहीं पर मौत हो गयी थी। जिसके कारण उस अस्‍पताल में मर चुके जवानों की रूहे भटकने लगी और देखते देखते कुछ दिनों में वहीं उनका बसेरा हो गया। 

उस समय से लेकर आज तक उन जवानों की रूहों को उस अस्‍पताल में साफ महसुस किया जाता हैं। जवानों के लाशों को उस समय अस्‍पताल के पिछे एक ब्‍लाक में जिसे मर्च्‍यूरी कहा जाता था, वहां रखा जाने लगा। रोजाना सैकड़ों लाशें लायी जाने लगी और मौत का तांडव शुरू हो चुका था। अस्‍पताल के दूसरे माले पर कई बार रात में लोगों ने एक वृद्व व्‍यक्ति का साया देखा इसके बारें में अस्‍पताल प्रबंधन को भी बताया गया लेकिन इस मामलें पर किसी ने भी ध्‍यान नही दिया। 

एक बार एक व्‍यक्ति दूसरे माले से अचानक गिर गया और वो बुरी तरह जख्‍मी हो गया जब अस्‍पताल में उसका इलाज किया जा रहा था। उस वक्‍त उसने बताया कि उसे ऐसा महसूस हुआ कि किसी ने उसे बलपूर्वक धक्‍का दे दिया हो और कुछ दिनों बाद उस व्‍यक्ति की मौत हो गयी। उसके उसके बाद से दूसरे माले पर लोग अकेले जानें में डरने लगे। कई लोगों ने दावा किया कि उस माले पर किसी के ठहाके लगा कर हंसने की भी आवांजे आती हैं। 

अस्‍पताल में एक नर्स का साया
अस्‍पताल में एक नर्स का साया भी बहुचर्चित हैं। एक बार एक जवान का इलाज करते समय एक नर्स से कुछ गलती हो गयी। उस समय जवान गुस्‍से में उसे बुरी तरह मारने पीटने लगा। उस समय वो नर्स पेट से गर्भवती थी और उस जवान ने पैर से उसके पेट पर भी वार कर दिया। पेट पर वार करते ही वो नर्स जमीन पर तड़पने लगी और मौके पर ही उसकी मौत हो गयी। 

तब से लेकर आज तक कई बार उर्स नर्स के साये को वहां देखा गया हैं। उस नर्स का साया आज भी कभी जमीन पर रेंगती है और खुद को बचाने का गुहार लगाती हैं। कभी कभी वो अपने हाथ में एक खंजर लिए घुमती हैं। एक व्‍यक्ति ने दावा किया कि वो जब अस्‍पताल के तीसरे माले पर गया था तो उसने वैसी ही एक महिला का साया देखा था और जब उसने उसके करीब जाने की कोशिश की तो वहां पर महिला, और बच्‍चे की रोने की आवाज आने लगी जिसके कारण वो वहां से भाग खड़ा हुआ। 

अस्‍पताल में जिंदा चौकीदार 
चौकिदार का भूत, इस अस्‍पताल में कहीं भी मिल जाता हैं। इस चौकीदार के बारें में कई लोगों ने दावा किया है कि उन लोगों ने उससे बात भी की हैं। कुछ ऐसा ही मामला दो भाईयों के साथ भी हुआ था। दोनों भाई अपने स्‍कुल से वापस लौट कर इस अस्‍पताल में घुमने के लिए आयें थे। अस्‍पताल के गेट पर आकर उन्‍हाने अपनी बाइक खड़ी की और अस्‍पताल के अंदर दाखिल हो गये। 

अभी वो कुछ ही दूर गये थे कि तभी अस्‍पताल का चौकीदार उनकी पास आ गया। चूकि दोनों भाई पहली बार उस अस्‍पताल में आयें थे और पुरा अस्‍पताल विरान था तो उन दोनों भाईयों ने उससे बातें करनी शुरू कर दी। जब वो कुछ दूरी पर बात करते गये और दूसरे माले पर पहुंचे तो चौकिदार ने एक भाई का हाथ पकड लिया और कहा कि बस बहुत घुम लिया तुम लोगों ने अब घर जाओं। 

जैसा कि दोनों भाईयों ने बताया कि उस आदमी के पास से भयानक बदबू आ रही थी, और उसकी आवाज भी काफी भारी थी। जब उसने ये बात कही तो हम डर गये क्‍यूंकि कई बार हम लोगों ने उस अस्‍पताल के बारें में सुना था और अंधेरा भी हो रहा था। इसलिए हम वापस आने लगे। जब हम वापस आ रहे थे तो हमने चौकीदार से पुछा कि आप कहां रहते हैं। 

तो चौकीदार ने उसी तरफ इशारा किया जिधर उसने हमे जाने से रोका था। फिर हमने पुछा कि आप यहां क्‍या करते है तो उसने बताया कि मै कई सालों से इस अस्‍पताल में लोगों की सेवा करता हूं। लेकिन मुझे बहुत दुख है कि यह अस्‍पताल अब बंद होग गया हैं। लेकिन मै इसे नहीं छोड सकता इतना कह कर वो सिडीयों से निचे उतरने लगा। हम दोनों उसके पीछे पीछे नीचे उतरे लेकिन वो नीचे कहीं भी नहीं था। 

इतना देखकर हम दोनों वहा से निकल गये और बाइक के पास आ गये हम दोनों काफी डरे हुए थे, और जल्‍दी जल्‍दी में बाइक का लाक भी नहीं खोल पा रहे थे। इसी समय एक भाई की नजर दूसरे के हाथ पर पड़ी जिसका हाथ को उस चौकीदार ने पकड़ा था। उसके कलाई पर एक काला निशान बन गया था। इतना देखते ही दोनों घबरा गये और वहां से भाग निकले। 

इस अस्‍पताल में चारों तरफ रूहों का कब्‍जा हैं। कभी भी आप इन रूहों को महसूस कर सकते है। लेकिन इस अस्‍पताल में अकेले घुमने नहीं दिया जाता हैं। क्‍योकि ऐसा माना जाता है कि कई बार रूहो को अहसास मात्र से कई लोगों के साथ हादसें हो गये हैं। विशेषकर दूसरे माले पर वहां से अब तीन लोगों की अपने आप ही गिरने से मौत हो गयी हैं। यदि आपकों इन्‍हे महसूस करना है तो कभी भी अकेले न जायें।

Monday 23 March 2015

Divya Aatma - दिव्य आत्मा

Divya Aatma

भारत ही नहीं अगर विश्व की बात करें तो बहुत सारे ऐसे पढ़े-लिखे लोग मिल जाएंगे जो भूत-प्रेत, आत्मा में विश्वास करते हैं। आए दिन भूत की खबरें पढ़ने को या देखने को मिलती हैं। कभी-कभी कुछ लोगों के कैमरे में भी ऐसी आत्माएँ शूट हो जाती हैं।

भूत है या नहीं यह अलग विषय है पर जो लोग अपनी वैज्ञानिकता के घमंड में यह मानने को तैयार ही नहीं होते कि भूत होते हैं और लोगों को बोलते हैं कि ऐसी अफवाह न फैलाएँ, इससे समाज दिग्भ्रमित होता है, हम गँवार समझे जाते हैं? क्या भूत-प्रेत को मानने वाले गँवार, अशिक्षित ही होते हैं? क्या वास्तव में आत्मा का कोई वजूद नहीं?

मुझे तो लगता है कि शरीर से आत्मा निकलने के बाद जब तक ब्रह्म में विलिन नहीं हो जाती या किसी अन्य शरीर में जन्म नहीं ले लेती, भटकती रहती है। भगवान है...यह अकाट्य सत्य है तो फिर आत्मा को मानना गँवारपन कैसे? जैसे विघटन के बाद, नाश के बाद हर वस्तु का कोई न कोई रूप बन जाता है या वह किसी न किसी रूप में, भले अंशमात्र में ही हो, उसका अस्तित्व बना रहता है वैसे ही आत्मा जबतक परमात्मा में एकाकार नहीं हो जाती या किसी अन्य शरीर में अवतरित नहीं हो जाती, विद्यमान रहती है।

खैर मैं यहाँ इस विषय पर प्रवचन देने नहीं आया हूँ। मैं तो कोई कहानी गढ़ रहा हूँ ताकि आप सबको सुना सकूँ। किसी पचरे में न पड़ते हुए आप भी इस भूतही काल्पनिक कहानी का आनंद लें....काल्पनिक इसलिए क्योंकि इस कहानी का आधार होकर भी कोई आधार नहीं...शब्दों में गूँथे होने के बाद भी अपनी काल्पनिकता से शब्दों में पिरोकर परोस रहा हूँ।

बहुत समय पहले की बात है। खुनिया गाँव के 8-10 लोगों की एक मंडली दर्शन हेतु एक काली मंदिर में गई थी। काली का यह मंदिर एक जंगल में था पर आस-पास में बहुत सारी दुकानें, धर्मशाला आदि भी थे, कच्ची-पक्की सड़कें भी बनी हुई थीं...पर घने-उगे जंगली पेड़-पौधे इसे जंगल होने का भान कराते थे। यह काली मंदिर बहुत ही जगता स्थान माना जाता था। यहाँ हर समय भक्तों की भीड़ लगी रहती थी पर मंदिर के अंदर जाने का समय सुबह 8 बजे से लेकर रात के 8 बजे तक ही था। भक्तों की उमड़ती भीड़ को देखते हुए मंदिर में मुख्य दरवाजे के अलावा एक और दरवाजा खोल दिया गया था ताकि भक्तजन मुख्य दरवाजे से दर्शन के लिए प्रवेश करें और दूसरे दरवाजे से निकल जाएँ।

खुनिया गाँव की मंडली शाम को 6 बजे दर्शन के लिए मंदिर पहुँची और दर्शन करने बाद मंदिर के आस-पास घूमकर वहाँ लगे मेले का आनंद लेने लगी। मेले में घूमते-घामते यह मंडली अपने निर्भयपन का परिचय देते हुए जंगल में थोड़ा दूर निकल गई। रात होने लगी थी, मंडली का कोई व्यक्ति कहता कि अब वापस चलते हैं, कल दिन में घूम लेंगे पर कोई कहता डर रहे हो क्या, इतने लोग हैं, थोड़ा और अंदर चलते हैं फिर वापस आ जाएँगे। ऐसा करते-करते यह मंडली उस जंगल में काफी अंदर चली गई। रात के अंधेरे में अब मंडली को रास्ता भी नहीं सूझ रहा था और न ही मंदिर के आस-पास जलती कोई रोशनी ही दिख रही थी। अब मंडली यह समझ नहीं पा रही थी कि किस ओर चलें। खैर, मंडली के एक व्यक्ति ने अपनी जेब से माचिस निकाली और झोले में रखे कुछ कागजों को जलाकर रोशनी कर दी।

रोशनी में उस मंडली ने जो कुछ देखा, वह बहुत ही भयावह था, आस-पास कुछ नर कंकाल भी नजर आ रहे थे और पेड़ों पर कुछ अजीब तरह के डरावने जीव-जंतु इस मंडली को घूरते नजर आ रहे थे। अब तो इस मंडली के सभी लोग पूरी तरह से चुप थे। कोई कुछ बोलने की हिम्मत नहीं कर रहा था पर हाँ वे लोग धीरे-धीरे एक-दूसरे के काफी करीब आकर चिपक गए थे। फिर किसी ने थोड़ी हिम्मत करके कागज की बूझती आग पर वहीं पड़े कुछ सूखे घास-फूस को डाला और फिर आग थोड़ी तेज हो गई।

मंडली ने मन ही मन निश्चित किया कि अभी कहीं भी जाना खतरे से खाली नहीं है, क्योंकि वे लोग रास्ता भी भूल गए थे और उन्हें समझ में ही नहीं आ रहा था कि किस ओर जाएँ। अस्तु उन लोगों ने फुसफुसाकर यह निर्णय लिया कि आज की रात कैसे भी करके यहीं गुजारेंगे और सुबह होते ही यहाँ से निकल जाएंगे। चूँकि ये लोग गाँव से थे और इन लोगों का भूत-प्रेतों से कई बार पाला पड़ा था, इसलिए थोड़े डरे हुए तो थे पर इतना भी नहीं कि ये डरकर चिल्लाने लगें या भागना शुरू कर दें। इस मंडली ने हिम्मत दिखाई और धीरे-धीरे कर के आग को और तेज करने लगी, क्योंकि अब इस मंडली को लगने लगा था कि जरूर यहाँ कुछ बुरी आत्माएँ हैं और वे इस मंडली को अपनी चपेट में लेना चाहती हैं।

पर वहाँ की आबोहवा देखकर यह गँवई मंडली पूरी तरह से डर गई थी और अंदर से पसीने-पसीने भी हो गई थी पर इस डर को चेहरे पर नहीं लाना चाहती थी, क्योंकि इनको पता था कि डरे तो मरे और डरे हुए लोगों पर यह बुरी आत्माएँ और भी असर करती हैं। मंडली के कुछ लोग एक दूसरे का हाथ कसकर पकड़ लिए थे और पूरी तरह से सतर्क थे। कुछ लोगों ने हनुमान चालीसा आदि पढ़ना और हनुमानजी को गोहराना भी शुरु कर दिया था तो कुछ लोग उस जंगल की काली माता की दुहाई दे रहे थे। अचानक एक भयानक आत्मा उनके सामने प्रकट हो गई और रौद्र रूप में अट्टहास करने लगी। उस समय का माहौल और भी भयानक हो गया। अब इस मंडली के पसीने चेहरे पर भी दिखने शुरु हो गए थे, चेहरे लाल होना शुरू हो गए थे और ये लोग और कसकर एक दूसरे के करीब आ गए थे। अभी वह रौद्र आत्मा अट्टहास करके पूरे वातावरण को और भी भयानक बनाए तभी वहाँ कुछ और भयानक आत्माएँ आ गईं। अब तो इस मंडली की सिट्टी-पिट्टी गुम। अब इन लोगों को अपना काल अपने सामने दिख रहा था। अब वहाँ एक नहीं लगभग 5-6 आत्माएँ आ गई थीं और अपनी अजीब हरकतों से माहौल को पूरी तरह भयानक बनाकर रख दी थीं।

मंडली के एक व्यक्ति ने हिम्मत करके कहा कि अगर मरना ही है तो इनका सामना करके मरेंगे। जिसके पास भी चाकू आदि है निकाल लो, डंडे आदि उठा लो और इनका सामना करो। दरअसल उस समय लोग अपनी जेब में छोटा सा चाकू आदि भी रखते थे और कुछ लोग बराबर लाठी लिए रहते थे। इस मंडली के दो लोगों के पास भी लाठी और तीन के पास चाकू थे। अब सब पूरी तरह से मुकाबला करने के लिए तैयार हो गए थे।

पर शायद इन्हें लड़ने की नौबत नहीं आई। हुआ यूँ कि जैसे ही एक भयानक आत्मा ने इनपर हमला किया...उसका सिर कटकर अलग गिर गया और वह बिना सिर के ही खूब तेज भागी तथा उसका सिर भी भाग निकला। अब माहौल एकदम से भयानक रणमय हो गया था क्योंकि एक गौरवर्णीय व्यक्ति जो कोई साधु जैसा दिखता था और केवल धोती पहने हुआ था, हाथ में तलवार लिए इन बुरी आत्माओं को काटे जा रहा था। देखते ही देखते उसने सारी बुरी आत्माओं को काटकर रख दिया पर गौर करने वाली बात यह थी कि कोई आत्मा मरी नहीं पर सब चिल्लाते हुए, अजीब-अजीब आवाज करते हुए वहाँ से भाग निकलीं। अब यह मंडली उस सज्जन महात्मा के पैरों पर गिर गई थी और उन्हें धन्यवाद दे रही थी।

इस मंडली को उस गौरवर्णीय, पराक्रमी महात्मा ने अपने पीछे आने का इशारा करके आगे बढ़ने लगे। लगभग 10 मिनट चलने के बाद यह मंडली एक कुटिया के पास पहुँच चुकी थी। वहाँ डर का कोई नामो-निशान नहीं था। उस महात्मा ने इन लोगों को कुटिया के अंदर आने का इशारा किया। कुटिया में पहुँचकर इन लोगों ने अपना झोरा-झंटा रखा और चैन की साँस ली। फिर बाबा ने इशारे से ही इन्हें खाने के लिए पंगत में बैठा दिया। कुटिया के अंदर से एक दूसरे महात्मा निकले और उन्होंने किसी पेड़ के पत्ते को पत्तल के रूप में इन लोगों के आगे रख दिया। फिर क्या था, उस महात्मा ने उस पत्तल पर कुछ अलग-अलग पेड़ों के पत्ते रखे। ऐसा करते समय इस मंडली को बहुत अजीब लग रहा था पर किसी में हिम्मत नहीं थी कि बाबा से कुछ पूछे। फिर उस महात्मा ने कमंडल से जल लिया और कुछ मंत्र बुदबुदाकर छिड़क दिया। अरे यह क्या अब तो वे पत्तलें थाल बन चुकी थीं और मंडली के हर व्यक्ति के इच्छानुसार उसमें पकवान पड़े हुए थे। फिर बाबा का इशारा मिलते ही बिना कोई प्रश्न किए यह मंडली जीमने लगी। जीमने के बाद बाबा का इशारा पाकर वह मंडली वहीं सो गई, पर सब सोने का नाटक कर रहे थे, नींद किसी के भी आँख में नहीं थी। इस कुटिया में दूर-दूर तक डर नहीं था पर बाबा के कारनामे देखकर वे लोग हतप्रभ थे और सोच रहे थे कि सुबह बाबा से इस बारे में जानकारी लेंगे।

सुबह जब सूर्य की किरणें इस मंडली के चेहरे पर पड़ी तो इनकी नींद खुली। मंडली का हर व्यक्ति बहुत ही आश्चर्य में था क्योंकि वहाँ न कोई कुटिया थी और न ही रात वाले बाबा ही। और ये लोग भी नीचे वैसे ही घाँस-फूस पर सोए हुए थे। अब इनको समझ में नहीं आ रहा था कि वह कुटिया और बाबा गए कहाँ। खैर अब इन लोगों के पास कोई चारा नहीं थी, थोड़ा-बहुत इधर-इधर छानबीन करने के बाद इनको रास्ता भी मिल गया और ये लोग मेले में वापस आ गए। मेले में वापस आने के बाद ये लोग काली माता के पुजारी से मिलकर सारी घटना बताए। पुजारी बाबा ने एक लंबी साँस छोड़ते हुए कहा कि वह दिव्य आत्मा है, जो इस जंगल में रहती है। वह केवल रात में ही और वह भी भूले-भटके लोगों को ही नजर आती है और उन्हें रात में आश्रय प्रदान करके फिर पता नहीं कहाँ गायब हो जाती है। उस पुजारी बाबा ने बताया कि ऐसी घटनाएँ उन्हें काफी श्रद्धालु सुना चुके हैं। इतना ही नहीं उन्होंने कई बार दिन के उजाले में 9-10 लोगों के साथ इस जंगल का कोना-कोना छान मारा है पर कभी भी न वे महात्मा मिले और न ही ऐसी कोई कुटिया ही दिखी।

खैर यह मंडली तो कुछ और ही करना चाहती थी। इस मंडली ने फिर हिम्मत करके रात को जंगल में निकल गई। मंडली चाहती थी कि उन्हें बुरी आत्माएँ सताएँ और बाबा फिर आकर उनकी रक्षा करें। इसी बहाने यह मंडली यह चाहती थी कि बाबा के दिखते ही उनके पैरों पर गिरकर कुछ रहस्यों के बारे में जानकारी ली जाएगी। बाबा से हाथ जोड़कर प्रार्थना किया जाएगा कि वे कुछ अनसुलझे प्रश्नों का उत्तर दें। पर यह क्या अभी यह लोग जंगल में कुछ दूर ही आगे बढ़े थे कि जो बाबा रात को पत्तल लाकर रखे थे, वे दिख गए और बोले, तुम लोगों के मन-मस्तिष्क में क्या चल रहा है, मुझे पता है....पर ऐसी भूल मत करो....कुछ चीजों को रहस्य ही रहने दो....और सबसे अहम बात हम और हमारे वे गुरुजी इस जंगल में इसी माता के दर्शन के लिए आए थे पर रात को जंगल में कुछ डाकुओं ने हमारी हत्या कर दी थी। फिर हम कभी इस जंगल को छोड़कर नहीं गए और रातभर जागकर श्रद्धालुओं को डाकुओं और बुरी आत्माओं से बचाते रहते हैं। 

बुड़ुआ (एक प्रकार का भूत) का उत्पात

बुड़ुआ (एक प्रकार का भूत) का उत्पात

कहानी शुरू करने से पहले यह जान लेना जरूरी है कि बुड़ुआ क्या होता है? दरअसल बुड़ुआ भी एक तरह का भूत ही है। ऐसा माना जाता है कि अगर कोई प्राणी पानी में डूबकर मरता है तो वह बुड़ुआ (एक प्रकार का भूत) बन जाता है। पहले के समय में लोगों का यह मानना था कि अधिकतर पोखरों, तालाबों, झीलों, नदियों आदि में बुड़ुआओं का वास रहता था और जब भी कोई व्यक्ति अकेले इन तालाबों आदि में जाते थे तो ये लोग उसे पकड़कर पानी के भीतर खींच लेते थे और उसे डुबाकर मार देते थे। कई लोगों ने यह भी बताया है कि किस प्रकार अपनी चतुरता और बल के आधार पर उन लोगों ने बुड़ुआओं का मात दे दिया और बुड़ुआओं के चंगुल से निकल भागे। दरअसल बुड़ुआ व्यक्ति को पानी में खींचने के साथ ही कभी-कभी पानी की कीचड़ में धाँस भी देते थे।
हमारे गाँव के एक व्यक्ति बताते थे कि एक बार वे खड़खड़ दुपहरिया में अपने भैंस को नहलाने के लिए पोखरे में लेकर गए थे। भैंस डुबाह भर पानी में चली गई और वे भी। अचानक एक बुड़ुआ ने उन पर हमला कर दिया और उन्हें कीचड़ में धाँसने की कोशिश करने लगा। बुड़ुआ के साथ उनकी खूब लड़ाई हुई अंत में वे महानुभाव बुड़ुआ के चंगुल से निकलकर भैंस के पीठ पर चढ़ गए। बुड़ुआ वहाँ भी उनका पीछा करना जारी रखा, अंततः पता नहीं भैंस को क्या आभास हुआ कि वह तेजी से पोखरे से बाहर निकलने के लिए भागी। ऐसा लगता था कि बुड़ुआ ने भैंस के पैरों को जकड़ लिया है। कैसे भी करके भैंस पानी के बाहर आई और उस महानुभाव की जान बची। एस घटना के लगभग महीनों तक वह भैंस कभी भी किसी तालाब आदि में जाने की हिम्मत नहीं जुता पाती थी।

आइए हम आपको बुड़ुआ की एक घटना सुना देते हैं। स्वर्गीय (स्वर्गीय कहना उचित प्रतीत नहीं हो रहा है क्योंकि अगर रमेसर स्वर्गीय हो गए तो फिर बुड़ुआ बनकर लोगों को सता क्यों रहे हैं- खैर भगवान उनकी आत्मा को शांति प्रदान करें।) रमेसर हमारे गाँव के ही रहने वाले थे और जब उन्होंने अपने इस क्षणभंगुर शरीर का त्याग किया उस समय उनकी उम्र लगभग 9-10 वर्ष रही होगी। वे बहुत ही कर्मठी लड़के थे। पढ़ने में तो बहुत कम रूचि रखते थे पर घर के कामों में बढ़-चढ़कर हिस्सा लेते थे। चउओं (मवेशियों) को चारा देने से लेकर उनको चराने, नहलाने, गोबर-गोहथारि आदि करने का काम वे बखूबी किया करते थे। वे खेती-किसानी में भी अपने घरवालों का हाथ बँटाते थे। उनका घर एक बड़े पोखरे के किनारे था। यह पोखरा गरमी में भी सूखता नहीं था और जब भी रमेसर को मौका मिलता इस पोखरे में डुबकी भी लगा आते। दरवाजे पर पोखरा होने का फायदा रमेसर ने छोटी ही उम्र में उठा लिया था और एक कुशल तैराक बन गए थे। आज गाँववालों ने इस पोखरे को भरकर घर-खलिहान आदि बना लिया है। इस पोखरे से गाँव को बहुत ही फायदा था। गर्मी में लोग खूब अपने मवेशियों को डूबकी लगवाते थे और बच्चों का झुंड भी खूब तैराकी करता था। यह पोखरा गाँव के जीवन का एक अंग था। वैसे भी आजकल तो कहीं भी ये पोखरे, तालाब आदि नजर नहीं आ रहे हैं, या बहुत कम नजर आ रहे हैं क्योंकि लोगों ने इन्हें भरना शुरू कर दिया है। खैर जो अपने हाथ में नहीं उसका रोना रोना ठीक नहीं, आइए आपको सीधे कहानी से परिचित करवाता हूँ।

एकबार की बात है की असह्य गरमी पड़ रही थी और सूर्यदेव अपने असली रूप में तप रहे थे। ऐसा लग रहा था कि वे पूरी धरती को तपाकर लाल कर देंगे। ऐसे दिन में खर-खर दुपहरिया (ठीक दोपहर) का समय था और रमेसर नाँद में सानी-पानी करने के बाद भैंस को खूँटे से खोलकर नाँद पर बाँधने के लिए आगे बढ़े। भैंस भी अत्यधिक गरमी से परेशान थी। भैंस का पगहा खोलते समय रमेसर ने बचपने (बच्चा तो थे ही) में भैंस का पगहा अपने हाथ में लपेट लिए। (इसको बचपना इसलिए कह रहा हूँ कि लोग किसी भी मवेशी का पगहा हाथ में लपेटकर नहीं रखते हैं क्योंकि अगर वह मवेशी किसी कारणबस भागना शुरु कर दिया तो उस व्यक्ति के जान पर बन आती है और वह भी उसके साथ घसीटते हुए खींचा चला जाता है क्योंकि पगहा हाथ में कस जाता है और हड़बड़ी में उसमें से हाथ निकालना बहुत ही मुश्किल हो जाता है।) जब रमेसर भैंस को लेकर नाँद की तरफ बढ़े तभी गरमी से बेहाल भैंस पोखरे की ओर भागी। रमेसर भैंस के अचानक पोखरे की ओर भागने से संभल नहीं सके और वे भी उसके साथ तेजी में खींचे चले गए। भैंस पोखरे के बीचोंबीच में पहुँचकर लगी खूब बोह (डूबने) लेने। चूँकि पोखरे के बीचोंबीच में रमेसर के तीन पोरसा (उनकी लंबाई के तिगुना) पानी था और बार-बार भैंस के बोह लेने से उन्हें साँस लेने में परेशानी होने लगी और वे उसी में डूब गए। हाथ बँधा और घबराए हुए होने की वजह से उनका तैरना भी काम नहीं आया।

2-3 घंटे तक भैंस पानी में बोह लेती रही और यह अभाग्य ही कहा जाएगा कि उस समय किसी और का ध्यान उस पोखरे की ओर नहीं गया। उनके घरवाले भी निश्चिंत थे क्योंकि ऐसी घटना का किसी को अंदेशा नहीं था। 2-3 घंटे के बाद जब भैंस को गरमी से पूरी तरह से राहत मिल गई तो वह रमेसर की लाश को खिंचते हुए पोखरे से बाहर आने लगी। जब भैंस लगभग पोखरे के किनारे पहुँच गई तो किसी व्यक्ति का ध्यान भैंस की ओर गया और वह चिल्लाना शुरु किया। उस व्यक्ति की चिल्लाहट सुनकर आस-पास के बहुत सारे लोग जमा हो गए। पर यह जानकर वहाँ शोक पसर गया कि कर्मठी रमेसर अब नहीं रहा। भैंस ने अपनी गरमी शांत करने के लिए एक निर्बोध बालक को मौत के मुँह में भेज दिया था।

इस घटना को घटे जब लगभग 5-6 साल बीत गए तो लोगों को उस पोखरे में बुड़ुवे (भूत) का एहसास होने लगा। गाँव में यह बात तेजी से फैल गई कि अब रमेसर जवान हो गया है और लोगों पर हमला भी करने लगा है। एक दिन गोन्हुआ सुबह-सुबह मछरी मारने के लिए तालाब से जलकुंभी निकाल रहा था तभी उसके पैरों में सेवार या काई जैसी कोई फिसलन वाली वस्तु लगी नजर आई, वह उस सेवार या काई जैसी वस्तु को जितना हाथ से नोचकर फेंकने की कोशिश करता, वह उतना ही उसके शरीर पर फैलती जा रही थी तथा गोन्हुआ को यह भी आभास हो रहा था कि पता नहीं क्यों, वह धीरे-धीरे पानी में खींचा चला जा रहा है। अचानक उसे लगे कि हो न हो कहीं यह रमेसर बुड़ुआ तो नहीं। फिर उसका लकार खुला और वह तेज-तेज चिल्लाने लगा। उसकी चिल्लाहट सुनकर कुछ लोग दौड़े हुए आए और उसे पानी से बाहर निकाला। गोन्हुआ पूरी तरह से डरा हुआ था और बता रहा था कि किस प्रकार न चाहते हुए भी वह पानी में खींचा चला जा रहा था। गोन्हुआ के अलावा भी कई लोगों ने उस बुड़ुवे को देखा था। एक बार की बात है की खमेसरी काकी, उस पोखरे के किनारे की बँसवारी में अपनी गाय के लिए बाँस की पतई तोड़ रही थीं तभी उन्हें तालाब में किनारे कुछ अजीब चीज तेजी से नीचे-ऊपर होते दिखाई दी, उनको पक्का यकीन हो गया कि यह रमेसर बुड़ुआ है क्योंकि वह अजीब चीज जब ऊपर उछलती तो हाथ के इशारे से उन्हें उसके पास आने का इशारा करती, पर खमेसरी काकी को पता था कि बुड़ुआ का बल केवल पानी में ही काम करता है, यहाँ सूखी जमीन पर वह उनका कुछ भी नहीं बिगाड़ सकता, अस्तु रमेसरी काकी उस बुड़ुआ पर ध्यान दिए बिना बाँस की पत्तई तोड़ने में लगी रहीं। आज वह पोखरा समतल हो गया है, उस पर घर-खलिहान आदि बन गए हैं पर जब तक उसमें पानी था तब तक रमेसर उस पोखरे में अकेले नहानेवाले कई लोगों पर हमला कर चुका था। एक बार तो वह एक बड़े बलवान आदमी को भी खींचते हुए पानी के अंदर लेकर चला गया था, अब डुबाने वाला ही था पर संयोग से किसी महिला की नजर उस पर पड़ गई और उसकी चिल्लाहट सुनकर कुछ लोगों ने उस व्यक्ति की जान बचाई।

Jab use mila bhutiya khajana - जब उसे मिला भूतही खजाना

Jab use mila bhutiya khajana

कहते हैं कि 'देनेवाला जब भी देता, देता छप्पर फाड़ के' पर ये जो देनेवाला है वह ईश्वर की ओर इशारा कर रहा है पर आपको पता है क्या कि अगर कोई भूत भी अति प्रसन्न हो जाए तो वह भी मालदार बना देता है। जी हाँ, हम आज बात कर रहे हैं एक ऐसे भूत की जिसने एक घूम-घूमकर मूँगफली और गुड़धनिया (गुड़ और मुरमुरे (चावल के भुजे) से बना बहुत छोटा-छोटा लड्डू के आकार की खाने की वस्तु) बेचने वाले पर इतना प्रसन्न हुआ कि उसे मालदार बना दिया। आखिर क्यों और कैसे?? आइए इस कहानी को आगे बढ़ाते हैं ताकि इन रहस्यों पर से परदा उठ सके।

हाँ, एक बात और इस कहानी को आगे बढ़ाने के पहले मैं आप लोगों को बता दूँ कि इस कहानी में कितनी सत्यता है यह मैं नहीं कह सकता क्योंकि यह कहानी भी मैं अपने गाँव-जवार में सुनी है और गँवई जनता की माने तो इस घटना को घटे लगभग 70-80 साल हो गए होंगे।

पहले गाँवों में कुछ बनिया फेरी करने आते थे (आज भी आते हैं पर कम मात्रा में)। कोई छोटी-मोटी खाने की चीजें बेचता था तो कोई शृंगार के सामान या धनिया-मसाला आदि। ये लोग एक दउरी (एक पात्र) में इन सामानों को रखकर गाँव-गाँव घूमकर बेंचते थे। आज तो जमाना बदल गया है और गाँवों में भी कई सारी दुकानें खुल गई हैं और अगर कोई बाहर से बेंचने भी आता है तो ठेले पर सामान लेकर या साइकिल आदि पर बर्फ, आइसक्रीम आदि लेकर।

हाँ तो यह कहानी एक ऐसे ही बनिये से संबंध रखती है जो गाँव-गाँव घूमकर मूँगफली, गुड़धनिया, मसलपट्टी आदि बेंचता था। इस बनिए का नाम रामधन था। रामधन सूनी पगडंडियों, बड़े-बड़े बगीचों आदि से होकर एक गाँव से दूसरे गाँव जाता था। रामधन रोज सुबह-सुबह मूँगफली, गुड़धनिया आदि अपने दउरी (पात्र) में रखता और किसी दूसरे गाँव में निकल जाता। एक गाँव से दूसरे गाँव होते हुए मूँगफली, गुड़धनिया बेंचते हुए वह तिजहरिया या कभी-कभी शाम को अपने गाँव वापस आता। जब वह अपनी दउरी उठाए चलता और बीच-बीच में बोला करता, "ले गुड़धनिया, ले मूंगफली। ले मसलपट्टी, दाँत में सट्टी, लइका (बच्चा) खाई सयान हो जाई, बूढ़ खाई (खाएगा) जवान हो जाई।" उसकी इतनी बात सुनते ही बच्चे अपन-अपने घर की ओर भागते हुए यह चिल्लाते थे कि मसलपट्टीवाला आया, मूंगफलीवाला आया। और इसके साथ ही वे अपने घर में घुसकर छोटी-छोटी डलिया में या फाड़ आदि में धान, गेँहूँ आदि लेकर आते थे और मूंगफली, गुड़धनिया आदि खरीदकर खाते थे।

एकदिन  की बात है। गरमी का मौसम था और दोपहर का समय। लू इतनी तेज चल रही थी कि लोग अपने घरों में ही दुबके थे। इसी समय रामधन अपने सिर पर दउरी उठाए हमारे गाँव से पास के गाँव में खेतों (मेंड़) से होकर चला। कहीं-कहीं तो इन मेंड़ों के दोनों तरफ दो-दो बिगहा (बिघा) केवल गन्ने के ही खेत रहते थे और अकेले इन मेड़ों से गुजरने में बहुत डर लगता था। कमजोर दिल आदमी तो अकेले या खर-खर दुपहरिया या शाम को इन मेंड़ों से गुजरना क्या उधर जाने की सोचकर ही धोती गीली कर देता था।

हमारे गाँव से वह पास के जिस गाँव में जा रहा था  उसकी दूरी लगभग 1 कोस (3 किमी) है और बीच में एक बड़ी बारी (बगीचा- इसे हमलोग आज भी बड़की बारी के नाम से पुकारते हैं) भी पड़ती थी। यह बारी इतनी घनी थी कि दोपहर में भी इसमें अंधेरा जैसा माहौल रहता था। इस बगीचे में आम के पेड़ों की अधिकता थी पर इस बारी के बीच में एक बड़ा बरगद का पेड़ भी था।

रामधन इस बगीचे में पहुँचकर अपनी दउरी को उतारकर एक पेड़ के नीचे रख दिया और सोचा कि थोड़ा सुस्ताने (आराम करने) के बाद आगे बढ़ता हूँ। वह वहीं एक पेड़ की थोड़ी ऊपर उठी जड़ को अपना तकिया बनाया और अपने गमछे को बिछा कर आराम करने लगा। उसको पता ही नहीं चला कि कब उसकी आँख लग गई (नींद आ गई)। अचानक उसे लगा कि बगीचे में कहीं बहुत तेज आँधी उठी है और डालियों आदि के टकराने से बहुत शोर हो रहा है। वह उठकर बैठ गया और डालियों की टकराहट वाली दिशा में देखा। अरे हाँ वह जहाँ सोया था वहाँ से कुछ ही दूरी पर दो पेड़ की डालियाँ बहुत तेजी से नीचे-ऊपर हो रही थीं और कभी-कभी इन डालियों के आपस में टकराहत से बहुत डरावनी आवाज भी होती थी। अगर कमजोर दिल आदमी अकेले में यह देख ले तो उसका दिल मुँह में आ जाए पर रामधान को तो यह आदत थी। वह मन ही मन सोंचा कि शायद भूत आपस में झगड़ा कर रहे हैं या कोई खेल खेल रहें हैं। वह डरनेवालों में से नहीं था वह वहीं लेटे-लेटे इन भूतों की लड़ाई का आनंद लेने लगा पर उसे कोई भूत दिखाई नहीं दे रहा था बस हवा ही उन पेड़ों के पास बहुत ही डरावनी और तीव्र बह रही थी।

रामधन के लिए भूतों की लड़ाई या खेल आम बात थी। उसे बराबर सुनसान रास्तों, झाड़ियों, घने-घने बगीचों आदि से होकर अकेले जाना पड़ता था अगर वह डरने लगे तो उसका धंधा ही चौपट हो जाए। उसका पाला बहुत बार भूत-प्रेत, चुड़ैलों आदि से पड़ा था पर किसी ने उसका कुछ नहीं बिगाड़ा था। वह अपने आप को बहुत बहादुर समझता था और इन भूत-प्रेतों को आम इंसान से ज्यादे तवज्जों नहीं देता था।

रामधन ने लेटे-लेटे ही अचानक देखा कि एक बड़ा ही भयंकर और विशालकाय प्रेत इस पेड़ से उस पेड़ पर क्रोधित होकर कूद रहा है और इसी कारण से उन दोनों पेड़ की डालियाँ बहुत वेग से चरर-मरर की आवाज करते हुए नीचे-ऊपर हो रही हैं। रामधन को और कुतुहल हुआ और अब वह और सतर्क होकर उस भूत को देखने लगा। अरे रामधन को लगा कि अभी तो यह प्रेत अकेले था अब यह दूसरा कहाँ से आ गया। अच्छा तो यह बात है. अब रामधन को सब समझ में आ गया। दरअसल बात यह थी कि यहाँ भूतों का खेल नहीं भयंकर झगड़ा चल रहा था। वह बड़ा भूत उस दूसरे भूत को पकड़ने की कोशिश कर रहा था पर कामयाब नहीं हो रहा था और इसी गुस्से में डालियों को भी तोड़-मरोड़ रहा था। अरे अब तो रामधन को और मजा आने लगा था क्योंकि भूतों की संख्या बढ़ती जा रही थी। अभी तक जो ये भूत अदृश्य थे अब एक-एक करके दृश्य होते जा रहे थे। और रामधन के लिए सबसे बड़ी बात यह थी कि आजतक उसका पाला जितने भूत-प्रेत, चुड़ैलों आदि से पड़ा था उनमें काफी समानता थी पर आज जो भूत-प्रेत एक-एक कर प्रकट हो रहे थे उनमें काफी असमानता थी। वे एक से बढ़कर एक विकराल थे। किसी-किसी की सूरत तो बहुत ही डरावनी थी। रामधन को एक ऐसी भूतनी भी दिखी जिसके दो सिर और तीन पैर थे। उसके नाक नहीं थे और उसकी आँख भी एक ही थी और वह भी मुँह के नीचे।

रामधन अब उठकर बैठ चुका था और अब भूतों के लड़ने की प्रक्रिया भी बहुत तेज हो चुकी थी। भूत एक दूसरे के जान के प्यासे हो गए थे। इन भूतों की लड़ाई में कई डालियाँ भी टूट चुकी थीं और उस बगीचे में बवंडर उठ गया था। अंत में रामधन ने देखा कि एक विकराल बड़े भूत ने एक कमजोर भूत को पकड़ लिया है और बेतहासा उसे मारे जा रहा है। अब धीरे-धीरे करके भूत अदृश्य भी होते जा रहे थे। अब वहाँ वही केवल तीन टांगवाली भूतनी ही बची थी और वह भयंकर विकराल भूत।

अब रामधन भी उठा क्योंकि इन भूतों की लड़ाई में लगभग उसके 1 घंटे निकल चुके थे। रामधन ने ज्यों ही अपनी दउरी उठाना चाहा वह उठ ही नहीं रही थी। रामधन को लगा कि अचानक यह दउरी इतनी भारी क्यों हो गई? उसने दुबारा कोशिश की और फिर तिबारा पर दउरी उठी नहीं, वह पसीने से पूरा नहा गया और किसी अनिष्ठ की आशंका से काँप गया। उसने मन ही मन हनुमान जी नाम लिया पर आज उसे क्या हो गया। वह समझ नहीं पा रहा था। आजतक तो वह कभी डरा नहीं था पर आज उसे डर सताने लगा। उसके पूरे शरीर में एक कंपकंपी-सी उठ रही थी और उसके सारे रोएँ तीर-जैसे एकदम खड़े हो गए थे।

अचानक उसे उस बगीचे में किसी के चलने की आवाज सुनाई दी। ऐसा लग रहा था कि कोई मदमस्त हाथी की चाल से उसके तरफ बढ़ रहा है। रामधन को कुछ दिख तो नहीं रहा था पर ऐसा लग रहा था कि कोई उसकी ओर बढ़ रहा है। उसके पैरों के नीचे आकर सूखी पत्तियाँ चरर-मरर कर रही थीं। अब रामधन ने थोड़ा हिम्मत से काम लिया और भागना उचित नहीं समझा। उसने मन ही मन सोचा कि आज जो कुछ भी हो जाए पर वह यहाँ से भागेगा नहीं। अचानक उस दैत्याकार अदृश्य प्राणी के चलने की आवाज थम गई। अब रामधन थोड़ा और हिम्मत करके चिल्लाया, "कौन है? कौन है? जो कोई भी है...सामने क्यों नहीं आता है?"

अब सब कुछ स्पष्ट था क्योंकि एक विकराल भूत (शायद यह वही था जो दूसरे भूत को मार रहा था) रामधन के पास दृश्य हुआ पर एकदम शांत भाव से। अब वह गुस्से में नहीं लग रहा था। रामधन ने थूक घोंटकर कहा, "कौन हो तुम और क्या चाहते हो? क्यों......मुझे.....परेशाना कर रहे हो.....मैं डरता नहींsssssssss।" वह विकराल भूत बोला, "डरो मत! मैं तुम्हें डराने भी नहीं आया हूँ। मैं यहां का राजा हूँ राजा और मेरे रहते किसी के डरने की आवश्यकता नहीं। अगर कोई डराने की कोशिश करेगा तो वही हस्र करूँगा जो उस कलमुनिया भूत का किया।" अब रामधन का डर थोड़ा कम हुआ और उसने उस भूत से पूछ बैठा, "क्या किया था उस कलमुनिया भूत ने?" वह विकराल भूत हँसा और कहा, "वह कलमुनिया काफी दिनों से इस ललमुनिया (तीनटंगरी) को सता रहा था। मैंने उसे कई बार चेतावनी दी पर समझा ही नहीं और हद तो आज तब हो गई जब उसने कुछ भूत-प्रेतों को एकत्र करके मुझपर हमला कर दिया। सबको मारा मैंने और दौड़ा-दौड़कर मारा।"

रामधन ने अपनी जान बचाने के लिए उस भूत की चमचागीरी में उसकी बहुत प्रशंसा की और बोला, "तो क्या अब मैं जाऊँ?" "हाँ जाओ, पर जाते-जाते कुछ तो खिला दो, बहुत भूख लगी है और थक भी गया हूँ।", उस विकराल भूत ने कहा। रामधन ने उस भूत से अपना पीछा छुड़ाने के लिए थोड़ा गुड़धनिया निकालकर उसे दे दिया। गुड़धनिया खाते ही वह भूत रामधन से विनीत भाव में बोला कि थोड़ा और दो ना, बहुत ही अच्छा है। मैं भी बचपन में बहुत गुड़धनिया खाता था। रामधन ने कहा कि नहीं-नहीं, अब नहीं मिलेगा, सब तूँ ही खा जाओगे तो मैं बेचूंगा क्या?  भूत ने कहा कि बोलो कितना हुआ, मैं ही खरीद लेता हूँ। रामधन को अब थोड़ी लालच आ गई क्योंकि उसने सुन रखा था कि इन भूत-प्रेतों के पास अपार संपत्ति होती है अगर किसी पर प्रसन्न हो गए तो मालामाल कर देते हैं।

अब रामधन ने दउरी में से थोड़ा और गुड़धनिया निकालकर उस भूत की ओर बढ़ाते हुए बोला कि अब पैसा दो तो यह दउरी का पूरा सामान तूझे दे दूँगा। भूत ने उसके हाथ से गुड़धनिया ले लिया और खाते-खाते बोला कि मेरे पीछे-पीछे आओ। अब तो रामधन एकदम निडर होकर अपनी दउरी को उठाया और उस भूत के पीछे-पीछे चल दिया। वह भूत रामधन को लेकर उस बगीचे में एकदम उत्तर की ओर पहुँचा। यह उस बगीचे का एकदम उत्तरी छोर था। इस उत्तरी छोर पर एक जगह एक थोड़ा उठा हुआ टिला था और वहीं पास में मूँज आदि और एक छोटा नीम का पेड़ था। उस नीम के थोड़ा आगे एक छोटा-सा पलास का पेड़ा था।

उस विकराल भूत ने रामधन से कहा कि इस पलास के पेड़ के नीचे खोदो। रामधन ने कहा कि मेरे पास कुछ खोदने के लिए तो है ही नहीं। तुम्हीं खोदो। रामधन की बात सुनकर वह भूत आगे बढ़ा और देखते ही देखते वह और विकराल हो गया। उसके नख खुर्पो की तरह बड़े हो गए थे और इन्हीं नखों से वह उस पलास के पेड़ के नीचे लगा खोदने। खोदने का काम ज्यों ही खतम हुआ त्योंही रामधन ने उस गड्ढे में झाँककर देखा। उसे उस गड्ढे में एक बटुला दिखाई दिया। अब तो वह बिना कुछ सोचे-समझे उस गड्ढे में प्रवेश करके उस बटुले को बाहर निकाला। बटुला बहुत भारी था। उसने बटुले के मुख पर से ज्योंकि ढक्कन हटाया उसकी आँखें खुली की खुली रह गईं क्योंकि बटुले में पुराने चाँदी के सिक्के थे। वह बहुत प्रसन्न हुआ और अपने दउरी में का सारा सामान वहीं गिरा दिया और भूत को बोला कि सब खा जाओ। भूत खाने पर टूट पड़ा और इधर रामधन ने उस बटुले का सारा माल अपने दउरी में रखा और उसे ढँककर तेजी से अपने गाँव की ओर चल पड़ा।

गाँव में पहुँचने के एक ही हप्ते बाद ऐसा लगा कि रामधन की लाटरी लग गई हो। उसने अपने मढ़ई के स्थान पर लिंटर बनवाना शुरू किया और धीरे-धीरे करके मूँगफली और गुड़धनिया बेंचने का धंधा बंद कर दिया।

सही कहा गया है कि देनेवाले भूतजी, जब भी देते, देते छप्पर भाड़कर।
इस कहानी में कितनी सच्चाई है यह मुझे नहीं पता पर आज भी गाँवों में सुनने को आता है कि फलाँ व्यक्ति को 4 बटुली पुराने सिक्के मिले तो फलाँ तो 2 बटुली। कुछ लोग ऐसा मानते हैं कि पहले कुछ लोग जब खानाबदोस जीवन जीते थे तो वह कहीं-कहीं महीनों-सालों तक डेरा डालते थे और अपने रूपए-पैसे को वहीं छिपा देते थे और बाद में भूल जाते थे या कहीं और चले जाते थे। ये वही पैसे हैं तो कुछ का कहना है कि ये भूत-प्रेतों के पैसे हैं और वे लोग वहीं रहकर इनकी रक्षा करते हैं।

Jangal ki Chudail - जॅंगल की चुरैल

Jangal ki Chudail - जॅंगल की चुरैल

ये कहानी सत्य घटना पर आधरित हैं !
माता जी  से सुनी हुई ये कहानी हमारे नाना जी के जीवन चक्र की एक घटना को दर्शाती हैं!
एक दिन की बात हैं , ठंड का समय था घना कोहरा छाया था सारे लोग जल्दी  कार्यालय का काम ख़त्म करके घर की तरफ निकल रहे थे ! नाना जी उस समय के बड़े अधिकारियों मे से एक थे ! वे उस समय के उच्च वर्ग के लोगों मे एक अमीन का काम करते थे ! रोज की तरह ही उस दिन कम ख़त्म होने के बाद घर के लिए अपनी गाड़ी से रवाना होने लगे ! रास्‍ते में उन्हे हाट से कुछ समान भी लेना था तो वे और साथियों से अलग हो गये ! उन्होने घर की कुछ जरूरत के समान लिए और गाड़ी आगे बढ़ा दी !
आगे जाने पर उन्हे कुछ मछली बाज़ार दिखा और वे मछली खरीदने के लिए रुक गये ! ताज़ी मछलियाँ लेने और देखने मे टाइम ज़्यादा ही गुजर गया ! उनकी जब अपनी घड़ी पर नज़र गई तो उन्हे आभास हुआ की आज तो घर जाने मे बहुत देर हो जाएगी और ये सब लेकर घर पहुचने मे काफ़ी समय लग जाएगा ! फिर यही सब सोच कर उन्होने सोचा कि क्यू ना जंगल के रास्ते से निकला जाए तो जल्दी पहुँच जाउँगा ! तो उन्होने अपना रास्ता बदला और जंगल की तरफ़ अपनी गाड़ी को घुमा लिया !
समय ११  बज चुका  था  गाड़ी तेज रफ़्तार से आगे बढ़ रहां  था  तभी अचनाक तेज ब्रेक के साथ गाड़ी को रोकना पड़ा !
उनकी गाड़ी के आगे एक औरतज़ोर २ से रो रही थी!
उन्होने सोचा इस वीराने मे ये औरत क्या कर रही हैं उन्हे लगा की कोई मजदूर की पत्नी होगी जो नाराज़ होकर घर छोड कर जॅंगल मे भाग आई हैं तो उन्होने उससे पूछा की यहाँ जॅंगल मे तुम क्या कर रही हो?
लकिन उसने कोई जवाब न देकर और ज़ोर २ से रोने लगी!
सारे जंगल मे उसकी हूँ हूँ  सी सिसकियाँ गूँज रही थी!
फिर नाना जी ने पूछा तुम्हारा घर कहाँ हैं?
लेकिन वो कुछ भी ना बोली!
तब नाना जी ने कहा की आज चलो मेरे घर मे रहना सुबह अपने घर चली जाना ये जॅंगल बहुत
सारे जंगली जानवर से भरा हे रात भर यहाँ मत रूको चलो आज मेरे घर मे सब के लिए खाना बना देना और कल सुबह अपने घर चली जाना ! उसने ये सुना तो झट से तैयार हो गई ! और गाड़ी मे पीछे की सीट पर बैठ गई!
सिर मे बड़ा सा घूँघट डालने की वजह से उसका चेहरा छिपा हुआ था ! कुछ  ही देर मे गाड़ी घर के दरवाजे पे थी! घर के लोग कब से उनकी राह देख रहे थे !
गाड़ी रुकते ही पापा  ने पूछा आज तो बहुत देर हो गई और सारे लोग आ भी चुके हैं ! तब उन्होने सारी बातें अपनी माँ को बताई और कहा की आज खाना इससे बनवा लो कल सुबह ये अपने घर चली जाएगी!
इतनी रात को बेचारी जंगल मे कहा भटकती ! इसलिए मैं ले आया !

पर पापा  को कुछ संदेह हो रहा था की कहीं चोर तो नहीं हे रात को सोने के बाद या खाना बनाते समय कहीं घर के सामान ही चुरा कर ना ले जाए!
पर बेटे की बात को कैसे माना करती !
उन्होने उस औरत को कहा देखो आज तो मैं रख ले रही हूँ लेकिन कल सुबह होते ही यहाँ से चली जाना!
और जाओ रसोई मे ये समान उठा कर ले जाओ और खाना बना दो !
उसने फिर से जवाब नहीं दिया !
बस हूँ हूँ हूँ की   आवाज  बाहर आयी !

और वो सारा सामान लेकर माँ के पी छे  बहुत  दूर   चल दी!

रसोई मे सारा सामान रखवा कर माता  जी  ने उसे खाना जल्दी बनाने की सख्‍त हिदायत दी!

और वहाँ से चली गई !
लेकिन उनका मन कुछ परेसान सा था !
फिर १०  मिनट मे रसोरे मे उसे देखने चली गई की वो क्या कर रही हे और उसका चेहर भी देखना चाहती थी!
लेकिन .....................................................................
वहाँ पहुची तो देखा की वो मछलियों का थैला निकल रही थी!
उन्होने बहुत ज़ोर से गुस्से मे कहा यहाँ सब खाने का इंतजार कर रहे हे और तुम अभी तक मछलियाँ ही निकल रही हो कल सुबह तक बनाओगी क्या?
उसके सिर पर घूँघट अभी भी था तो चेहरा देखना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन  था !
उन्होने उससे कहा तुम जल्दी से खाने की तैयारी करो मैं आग सुलगा देती हूँ काम जल्दी हो जाएगा !
और वे जल्दी से चूल्हा जलाने की तैयारिया करने लगी !
लेकिन साथ ही वो उसका चेहरा देखने की भी कोशिश कर रही थी !
लेकिन वो जितना देखने की कोशिश करती वो और पल्लू खींच लेती! अंत मे हार कर वे बोली देखो मैने आग सुलगा दी हैं अब आगे सारा काम कर लो !
कुछ ज़रूरत हो तो बुला लेना ! लेकिन वो फिर कुछ नहीं बोली ! अब उन्हें लगा की यहाँ से जाने मे ही ठीक हैं ! वरना मेरा भी समय खराब होगा और हो सकता हैं अंजान लोगों से डर रही हो !
ये सब सोच कर उन्होंने उसे कहा की मैं आ रही हूँ जल्दी से खाना बना कर रखना !
और वहाँ से निकल गई !
मन अभी तक परेसांन ही था !
कभी अपने कमरे कभी बच्चों के कभी बाहर सब को देख रही थी, कहीं कुछ अनहोनी ना हो जाए!
एक मिनट भी आराम से नहीं बैठ पाई !
अभी पाँच मिनट ही हुए थे पर उनके लिए वो घड़ी पहाड़ सी हो रही थी !
समय बीत ही नहीं रहा था !
आठ मिनट बड़ी मुश्किल से गुज़रे और वे तुरंत ही कुछ सोच कर रसोरे की तरफ दौड़ी !

और वहाँ पहुँच कर आया

जैसे ही उन्होने रसोई घर का नज़ारा देखा , उनकी आँखे फटी की फटी रह गई ! उनके पैर बिल्कुल ही जम गये ना उनसे आगे जाया जा रहा था ना ही पीछे !

उनके हृदय की धडकने रुक रही थी !

वो औरत रसोरे मे बैठ कर सारी कच्ची मछलिया खा रही थी !
सारे रसोरे में मछलियाँ और खून बिखरा पड़ा था !

उसके सिर से घूँघट भी उतरा पड़ा था !
इतना खौफनाक चेहरा आज तक उन्होने नहीं देखा था !
बाल, नाख़ून सब बढ़े हुए थे !

मछलियाँ खाने मे मगन होने की वजह से उसे कुछ ध्यान भी नहीं था !
और खुशी से कभी २ वो आवाज़े भी निकल रही थी !

हूँ हूँ सी आवाज़े गूँज रही थी !

रसोरा पिछवारे मे होने की वजह से और लोगों का ध्यान भी इधर नही आ रहा था !
माँ को भी कुछ नहीं समझ आ रहा था , कि चिल्लाने से कहीं घर के लोगों को नुकसान ना पहुचाए !

वो चुड़ैल से अपने घर को कैसे बचाए उन्हे समझ नहीं आ रहा था !
बस भगवान का नाम ही उनके दिमाग़ मे आ रहा था !
अचानक वे आगे बढ़ने लगी उसकी तरफ !

और झट से एक थाल लिया और चूल्‍हे की तरफ दौड़ी ! उस चुरैल  की नज़र भी पापा  पर पड़ चुकी थी सो वो भी कुछ सोच कर उठी अपनी जगह से !

माँ कुछ भी देर नहीं करना चाहती थी , उन्हे पता था की आज अगर ज़रा सी भी लापरवाही हुई तो अनहोनी हो जाएगी !
उस चुरैल के कुछ करने से पहले ही उन्हे चूल्‍हे तक पहुचना था !
और चूल्‍हे के पास पहुँच कर उन्होने जलता हुआ कोयला थाल मे भर लिया !
और चुड़ैल की तरफ लेकर जोर से फेंका !

आग की जलन की वजह से वो अजीब सी डरावनी आवाज़े निकालने लगी !

अब तो उसकी आवाज़े बाहर भी जा रही थी सारे लोग बाहरसे रसोरे की तरफ भागे !

वो चुड़ैल ज़ोर  से हूँ हूँ  जोर  की आवाज़ निकल रही थी और पूरे रसोरे मे दौड़ रही थी और माता जी  को पकड़ना भी चाह रही थी !
लेकिन अब सारे लग रसोरे मे आ चुके थे काफी  लोगों की भीड़ देख कर वो और भी डर गयी  थी !

लोंगों की भीड़ को थेलती हुई वो बाहर जॅंगल की तरफ भाग गये

और सारे लोग ये मंज़र देख कर डरे साहमे से खड़े थे ! और मन हीं मन माता जी   की हिम्मत की दाद दे रहे थे
तो ऐसे छूटा चुरैल से पीछा ! 
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